संस्मरणों का सच (3)

दादा जी (पंडित श्यामलालद्) छोटे कद के, बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्हें सारा गाँव बापू कहता था। दिल्ली का हाल जानने के लिये बड़े बेताब थे, सो थोड़ी देर बाद ही उन्होंने पूछना शुरू कर दिया। गुड़वाली धर्मशाला, बगीची माधेदास, पीली कोठी, मोर सराय, जाट धर्मशाला आदि जहाँ-जहाँ गाँव के ब्राह्मण, ठाकुर, गडरिये, मैना ठाकुर, उपाध्य रहते थे सभी के बारे में यह जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी कि वे सभी इतनी बड़ी मारकाट में जिन्दा बचे या नहीं।


न जाने पिताजी कितनी रात तक उन्हें विस्तार से सब कुछ बताते रहे, मुझे न जाने कब नींद आ गयी । सुबह जब उठा तो सूरज की पहली किरणें हल्की गुलाबी ठंड में लिपटीं सारे आँगन में फ़ैल चुकी थीं और सामने कुए के पास खड़ा पीपल मस्ती में झूम रहा था।

पिताजी के सामने सबसे बड़ी परेशानी थी, मेरी पढाई। दूसरी कक्षा तक मेरी पढाई दिल्ली के उमराव सिंह प्रामरी स्कूल, जो चाँदनी चौक में जग प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर से सटा हुआ है, हुई थी। और अब मुझे तीसरी कक्षा में दाखिला लेना था।

ये सब हालात और बातें 1947 के जुलाई माह के पहले सप्ताह की हैं। अगस्त की 15 तारीख तय हो चुकी थी, देश की आजादी की। जिस दिन देश के पहले प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू को लालकिले की प्राचीर से झण्डा लहराना था। पिताजी ने तय किया किया कि 15 अगस्त का दिन देश के लिये एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दिन है, सो वे मुझे और माँ को लालकिले पर होने वाला यह जश्न जरूर दिखायेंगे।

आजादी के इस पहले त्यौहार पर मैं पिताजी के साथ दिल्ली में था। और भीड़ चूंकि लाखों में थी, सो 11 साल की उमर के किसी बच्चे के लिये यह सम्भव नहीं था कि भीड़ के बीच खड़ा होकर वह देश के पहले प्रधानमन्त्री को आजादी का झण्डा फहराते हुए स्वयं के बल पर देख सके। पिताजी ने मुझे आजादी का पहला दिन और पहला जश्न अपने कंधे पर बिठा कर दिखाया, जिसकी तस्वीर आज भी जहन में ज्यों की त्यों है।

आजाद देश के जन्म का आनन्द बहुत देर तक नहीं रह सका। पिताजी ने शाम को लौटकर बताया था कि पहचान के काफी लोग गायब थे। जिनमें कुछ हमारे खानदानी भी थे और खान साहब भी। खान साहब अपनी पठानी वेशभूषा में खूब जमते थे और घर-घर जाकर हींग बेचा करते थे। वे सब या तो भाग गये थे, या मारे गये थे। लेकिन खान साहब इस दुनियाँ में अब नहीं थे। यह खबर पक्की थी। क्योंकि जो लोग उनसे जुड़े थे, उन्होंने उनकी लाश धर्मशाला की दीवार के साथ वीराने में पड़ी देखी थी। जब भी किसी जाने पहचाने आदमी की खबर मिलती तो घर में मातम छा जाता। पिताजी भी बहुत भावुक व्यक्ति थे और उनका यह गुण मेरे भीतर पूरी तरह समाहित है। जब एक व्यक्ति की दुनियाँ से विदा होने की खबर मिलती तो उसके साथ-साथ एक बड़ा इतिहास भी दफन हो जाता।

समय जहाँ तेजी से आगे दौड़ता है, वहीं बीते हुए पर धूल की परत और खुले घावों पर मरहम लगाता चलता है।

पिताजी फिर से मुझे और माँ को गाँव में छोड़कर अपनी नौकरी पर लौट गये।

अक्तूबर तक मैं बिल्कुल खाली और आजाद था, जो दूसरी कक्षा की किताबें मेरे पास थीं। अक्सर उन्हीं को यदा-कदा पढ़ता या फिर गाँव में नये-नये बने दोस्तों के साथ गाँव में खेले जाने वाले खेल जैसे गिल्ली-डण्डा, चंगला मार, नौ गोटी, कबड्डी या फिर कोड़ा जमालशाही खेलता।

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