तरक्की,
आदमी बहुत तरक्की कर गया है
संवेदनहीनता की
सारी हदें पार कर गया है
अब
आदमी का मरना ,या
सरेआम मार दिया जाना
महज एक सनसनीखेज़ ख़बर के अलावा
और कुछ नहीं होता
और इस ख़बर की उमर भी
बुलबुले की उमर के बराबर होती है
वास्तविकता तो ये है
की अब
आदमी दो भागों में विभक्त हो गया है
बाहर से पहले जैसा ज़िंदा
लेकिन
भीतर से मर गया है
आदमी को इंसान बनाने के लिए
जरूरी है एक आसव
जिसे तैआर करने के लिए
जरूरी हैं कुछ जड़ी बूटियाँ
जैसे
गीत ,कविता ,कहानी
दोहा,मुक्तक और ग़ज़ल
सबको बराबर मात्रा में लेकर
मिलाकर उतना ही दर्देजल
घूँट -घूँट कर पीना होगा
तभी बच पायेगा
आदमी का आदमीपन
और इसके लगातार सेवन से
आप देखेंगे
क़ि बदल गया है आदमी
और वह अब
आदमी से इंसान बन गया है
मत पूछो प्रशन कोई हमसे
मत पूछो प्रशन कोई हमसे
उत्तर से और जनम लेंगे
अंतस में जो बचे शेष वे
आंसू बनकर छलकेंगे
जाने कितनी मन्नत मानीं
दर कितनों पर कर जोर झुके
गर मिला कहीं भी देवस्थल
तो पाँव वहाँ पर स्वयं रुके
तब किसी पुजारी ने आकर
इक बात कही यों समझाकर
करम लिखे जो मांथे पर वे
नहीं तिलक से बदलेंगे
हम रहे खोजते प्रेम डगर
ना जाने कहाँ विलीन हुई
घर भीतर खोया अपनापन
मानवता बन कर उड़ी रुई
बढ़ती हुई भीड़ में शायद
खोया कहीं आदमीपन
कितनी भी कसो मुट्ठ्याँ तुम
रजकण बाहर ही निकलेंगे
बी एल गौड़
उत्तर से और जनम लेंगे
अंतस में जो बचे शेष वे
आंसू बनकर छलकेंगे
जाने कितनी मन्नत मानीं
दर कितनों पर कर जोर झुके
गर मिला कहीं भी देवस्थल
तो पाँव वहाँ पर स्वयं रुके
तब किसी पुजारी ने आकर
इक बात कही यों समझाकर
करम लिखे जो मांथे पर वे
नहीं तिलक से बदलेंगे
हम रहे खोजते प्रेम डगर
ना जाने कहाँ विलीन हुई
घर भीतर खोया अपनापन
मानवता बन कर उड़ी रुई
बढ़ती हुई भीड़ में शायद
खोया कहीं आदमीपन
कितनी भी कसो मुट्ठ्याँ तुम
रजकण बाहर ही निकलेंगे
बी एल गौड़
तू मुझे भी साथ ले चल
तू मुझे भी साथ ले चल
तू मुझे भी साथ ले चल
झूमकर बहते पवन
है मुझे चूना उसे जो
जा बसा नीले गगन
देकर दिलाशा वह गया
मैं लौटकर फिर आऊँगा
ताप हर लेगा तुम्हरा
पुष्प जो मैं लाऊँगा
टाक नित सूनी डगर को
थक चुके हैं अब नयन
गर न पाया वह गगन तो
पार सागर के चलेंगे
तीव्र गति का यान लेकर
पार हर दूरी करेंगे
वह कहीं भी तो मिलेगा
घाट-घाटी या घने वन
ये न जाने कौन मन की
प्यास को देता बढ़ावा
और इस ढलती उमर में
फूटता सुधिओं लावा
कौन कब आया कहाँ पर
पहन कर पीले वसन
पा न पाये हम उसे तो
खा रहे गंगा कसम
मान कर यह झूंठ था सब
तोड़ लेंगे हम भरम
सोच कर मित्थ्या जगत ये
हम करेंगे वन गमन
बी एल गौड़
तू मुझे भी साथ ले चल
झूमकर बहते पवन
है मुझे चूना उसे जो
जा बसा नीले गगन
देकर दिलाशा वह गया
मैं लौटकर फिर आऊँगा
ताप हर लेगा तुम्हरा
पुष्प जो मैं लाऊँगा
टाक नित सूनी डगर को
थक चुके हैं अब नयन
गर न पाया वह गगन तो
पार सागर के चलेंगे
तीव्र गति का यान लेकर
पार हर दूरी करेंगे
वह कहीं भी तो मिलेगा
घाट-घाटी या घने वन
ये न जाने कौन मन की
प्यास को देता बढ़ावा
और इस ढलती उमर में
फूटता सुधिओं लावा
कौन कब आया कहाँ पर
पहन कर पीले वसन
पा न पाये हम उसे तो
खा रहे गंगा कसम
मान कर यह झूंठ था सब
तोड़ लेंगे हम भरम
सोच कर मित्थ्या जगत ये
हम करेंगे वन गमन
बी एल गौड़
आवाजों वाला घर
आवाजों वाला घर
जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
लोह लक्कड़
ईंट पत्थर
काठ कंकड़ से खड़ा कर
द्वार पर पहरा बिठाता हूँ
जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
एक दिन
मेरे भीतर का मैं
बाहर आया
चारो ओर घूमकर
चिकनी दीवारों पर
बार बार हाथ फेरकर
खिड्किओं और दरवाजों को
कई कई बार
खोलकर -बंदकर
संतुष्टि करता हुआ बोला :
क्या ख़ाक घर बनाते हो
मैं बताता हूँ तुम्हे
घर बनाना
घर बनता है
घर के भीतर की आवाजों से :
चढ़ती उतरती सीडिओं पर
घस-घस
बर्तनों की टकराहट
टपकते नल की टप टप
द्वार पर किसी की आहट
रसोई से कुकर की सीटी
स्नानघर से हरी ॐ तत्सत
पूजाघर से -टनन टनन
आरती के स्वर
आँगन से बच्चों की धकापेल
दादा की टोका टाकी
ऊपरी मन से
दादी की कोसा काटी
और इसी बीच
महाराजिन का पूछना
"बीबी जी क्या बनाऊं ?
जब तक यह सब कुछ नहीं
तब तक घर घर नहीं
मत कहना दोबारा
कि मैं
जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
लोह लक्कड़
ईंट पत्थर
काठ कंकड़ से खड़ा कर
द्वार पर पहरा बिठाता हूँ
जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
एक दिन
मेरे भीतर का मैं
बाहर आया
चारो ओर घूमकर
चिकनी दीवारों पर
बार बार हाथ फेरकर
खिड्किओं और दरवाजों को
कई कई बार
खोलकर -बंदकर
संतुष्टि करता हुआ बोला :
क्या ख़ाक घर बनाते हो
मैं बताता हूँ तुम्हे
घर बनाना
घर बनता है
घर के भीतर की आवाजों से :
चढ़ती उतरती सीडिओं पर
घस-घस
बर्तनों की टकराहट
टपकते नल की टप टप
द्वार पर किसी की आहट
रसोई से कुकर की सीटी
स्नानघर से हरी ॐ तत्सत
पूजाघर से -टनन टनन
आरती के स्वर
आँगन से बच्चों की धकापेल
दादा की टोका टाकी
ऊपरी मन से
दादी की कोसा काटी
और इसी बीच
महाराजिन का पूछना
"बीबी जी क्या बनाऊं ?
जब तक यह सब कुछ नहीं
तब तक घर घर नहीं
मत कहना दोबारा
कि मैं
पनपती तानाशाही
जब १९७४ में रेल हड़ताल हुई तो मैं रेलवे मैन्स यूनियन गाजियाबाद ब्रांच का पदाधिकारी था। रेलवे कर्मचारियों की इस यूनियन की बागडोर फैडरेशन लेबल पर श्री जार्ज फर्नांडीज के हांथों में थी। गाजियाबाद ही नहीं सारे भारत में यंहा तक की मुंबई में भी जहा कभी भी इससे पहले की हडतालों में रेल बंद हुईं हैं, वंहा के प्लेटफार्म पर भी सूनापन पसरा था। गाड़ियाँ जंहा की तंहा खड़ी थीं।
देश में कोंग्रेस का राज था। हर जगह नारे लग रहे थे- "तानाशाही नहीं चलेगी, गुंडागर्दी नहीं चलेगी, हमारी मांगें पूरी करो" आदि-आदि। रेलवे की यह हड़ताल पूरी तरह सफल रही, सिवाय इसके की कुछ स्थानों पर सिर-फिरे पुलिस कर्मियों की ज्यादती रही। हर जिले की जेलें हडताली कर्मचारियों से पात दी गयीं, लेकिन यह सुनने को नहीं मिला कि किसी कर्मचारी का सिर पुलिस की लाठी से फूट गया या कर्मचारियों को दोड़ा-दोड़ा कर पिता गया। मैं चूँकि स्वयं भुक्तयोगी रहा हूँ, इसलिए इसका साक्षी भी हूँ। जेल में जेल अधिकारीयों का व्यवहार अच्छा और सोहार्दपूर्ण था।
लेकिन आज का नजारा दूसरा है, ३६ साल में देश ने बहुत तरक्की की है। पुलिस और नेताओं के दिमाग विकसित हुए हैं, उनकी सोच बदली है। अब वे हडताली कर्मचारियों को आदमियों के झुण्ड में न देख कर पशुओं के झुण्ड में देखते है उन्हें लगता है की साड़ी भेड़ें एक हो गयी हैं और ये बिना लाठी के काबू में नहीं आयेंगी। साथ ही लाठी चलाने वाले और चलवाने वाले अफसर राज्य -सर्कार में अपने नंबर बदवाना चाहतें हैं। अब नंबर तो इसी तरह से बढेंगे न कि वे सरकार कि मर्जी के मुताबिक़ कार्य करें। अपना विवेक और अपनी मानवता घर के भीतर खूंटी पर टांग कर कार्य करें।
दिनांक २२/१/२०१० को आप लगभग सभी चैनेलों पर देख रहे होंगें कि किस प्रकार उत्तर प्रदेश कि राजधानी लखनऊ का डी.एम. एक कर्मचारी को चांटा मार रहा है। और चांटे से पहले चेतावनी देना भी नहीं भूलता कि उसे गुस्सा न दिलाया जाय। अब डी.एम. के एक चांटे ने उस कर्मचारी की सामाजिक इज्जत और उसके स्वाभिमान पर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया। यदि डी.एम.के स्थान पर कोई उसका हमजोली होता तो उसका भी हाथ उठ सकता था, लेकिन यंहा उस कर्मचारी का विवेक काम कर रहा था की प्रत्युतर का परिदाम होगा शरीर की एक भी हड्डी का साबुत न बचना।
प्रश्न चांटे या लाठी चार्ज पर ही समाप्त नहीं होता। यदि सरकार तंत्र ने येनकेन-प्रकारेण इस स्थानीय साधारण से विद्रोह को कुचल भी दिया और विजय प्राप्त कर ली तो क्या समस्या का हल हो गया? मैं समझता हूँ इससे कर्मचारियों के मन में जो विद्रोह का विस्फोट होगा वह लाठी और चांटे से अधिक भयंकर होगा। साधारण स्थिति में भी जंहा दफ्तर का बड़ा बाबु अपनी सीट पर अपना चश्मा रख कर गायब हो जाता है, और लोग इन्तजार में ऐसे बैठे रहते है, जैसे वे किसी चिता के पास बैठकर कपाल खोपड़ी की क्रिया पूर्ण होने का इन्तजार कर रहे हों. चुपचाप बिलकुल शांत लोहे या फट्टे की बेंच पर रह -रहकर पास बदलते हुए । तो इस लाठी -चांटे का बदला कर्मचारी अपनी अनुपस्थिति का समय बढाकर, सही को सही कहने की अपनी सुविधा शुल्क बढाकर सरकार से बदला लेने की कोशिश करेगा। और इसके बाद कर्मचारी किसी भी हड़ताल या विद्रोह जताने से पहले दस बार सोचेंगे। शायद धीरे-धीरे वे किसी भी प्रकार के विदोढ़ से ही विमुख हो जायें। और महसूस करने लगे कि प्रजातंत्र और लोकतंत्र केवल दिखावा है। जंहा व्यक्ति अपना विरोध प्रकट नहीं कर सकता वंहा कैसा लोकतंत्र।
देश में कोंग्रेस का राज था। हर जगह नारे लग रहे थे- "तानाशाही नहीं चलेगी, गुंडागर्दी नहीं चलेगी, हमारी मांगें पूरी करो" आदि-आदि। रेलवे की यह हड़ताल पूरी तरह सफल रही, सिवाय इसके की कुछ स्थानों पर सिर-फिरे पुलिस कर्मियों की ज्यादती रही। हर जिले की जेलें हडताली कर्मचारियों से पात दी गयीं, लेकिन यह सुनने को नहीं मिला कि किसी कर्मचारी का सिर पुलिस की लाठी से फूट गया या कर्मचारियों को दोड़ा-दोड़ा कर पिता गया। मैं चूँकि स्वयं भुक्तयोगी रहा हूँ, इसलिए इसका साक्षी भी हूँ। जेल में जेल अधिकारीयों का व्यवहार अच्छा और सोहार्दपूर्ण था।
लेकिन आज का नजारा दूसरा है, ३६ साल में देश ने बहुत तरक्की की है। पुलिस और नेताओं के दिमाग विकसित हुए हैं, उनकी सोच बदली है। अब वे हडताली कर्मचारियों को आदमियों के झुण्ड में न देख कर पशुओं के झुण्ड में देखते है उन्हें लगता है की साड़ी भेड़ें एक हो गयी हैं और ये बिना लाठी के काबू में नहीं आयेंगी। साथ ही लाठी चलाने वाले और चलवाने वाले अफसर राज्य -सर्कार में अपने नंबर बदवाना चाहतें हैं। अब नंबर तो इसी तरह से बढेंगे न कि वे सरकार कि मर्जी के मुताबिक़ कार्य करें। अपना विवेक और अपनी मानवता घर के भीतर खूंटी पर टांग कर कार्य करें।
दिनांक २२/१/२०१० को आप लगभग सभी चैनेलों पर देख रहे होंगें कि किस प्रकार उत्तर प्रदेश कि राजधानी लखनऊ का डी.एम. एक कर्मचारी को चांटा मार रहा है। और चांटे से पहले चेतावनी देना भी नहीं भूलता कि उसे गुस्सा न दिलाया जाय। अब डी.एम. के एक चांटे ने उस कर्मचारी की सामाजिक इज्जत और उसके स्वाभिमान पर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया। यदि डी.एम.के स्थान पर कोई उसका हमजोली होता तो उसका भी हाथ उठ सकता था, लेकिन यंहा उस कर्मचारी का विवेक काम कर रहा था की प्रत्युतर का परिदाम होगा शरीर की एक भी हड्डी का साबुत न बचना।
प्रश्न चांटे या लाठी चार्ज पर ही समाप्त नहीं होता। यदि सरकार तंत्र ने येनकेन-प्रकारेण इस स्थानीय साधारण से विद्रोह को कुचल भी दिया और विजय प्राप्त कर ली तो क्या समस्या का हल हो गया? मैं समझता हूँ इससे कर्मचारियों के मन में जो विद्रोह का विस्फोट होगा वह लाठी और चांटे से अधिक भयंकर होगा। साधारण स्थिति में भी जंहा दफ्तर का बड़ा बाबु अपनी सीट पर अपना चश्मा रख कर गायब हो जाता है, और लोग इन्तजार में ऐसे बैठे रहते है, जैसे वे किसी चिता के पास बैठकर कपाल खोपड़ी की क्रिया पूर्ण होने का इन्तजार कर रहे हों. चुपचाप बिलकुल शांत लोहे या फट्टे की बेंच पर रह -रहकर पास बदलते हुए । तो इस लाठी -चांटे का बदला कर्मचारी अपनी अनुपस्थिति का समय बढाकर, सही को सही कहने की अपनी सुविधा शुल्क बढाकर सरकार से बदला लेने की कोशिश करेगा। और इसके बाद कर्मचारी किसी भी हड़ताल या विद्रोह जताने से पहले दस बार सोचेंगे। शायद धीरे-धीरे वे किसी भी प्रकार के विदोढ़ से ही विमुख हो जायें। और महसूस करने लगे कि प्रजातंत्र और लोकतंत्र केवल दिखावा है। जंहा व्यक्ति अपना विरोध प्रकट नहीं कर सकता वंहा कैसा लोकतंत्र।
संस्मरणों का सच (3)
दादा जी (पंडित श्यामलालद्) छोटे कद के, बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्हें सारा गाँव बापू कहता था। दिल्ली का हाल जानने के लिये बड़े बेताब थे, सो थोड़ी देर बाद ही उन्होंने पूछना शुरू कर दिया। गुड़वाली धर्मशाला, बगीची माधेदास, पीली कोठी, मोर सराय, जाट धर्मशाला आदि जहाँ-जहाँ गाँव के ब्राह्मण, ठाकुर, गडरिये, मैना ठाकुर, उपाध्य रहते थे सभी के बारे में यह जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी कि वे सभी इतनी बड़ी मारकाट में जिन्दा बचे या नहीं।
न जाने पिताजी कितनी रात तक उन्हें विस्तार से सब कुछ बताते रहे, मुझे न जाने कब नींद आ गयी । सुबह जब उठा तो सूरज की पहली किरणें हल्की गुलाबी ठंड में लिपटीं सारे आँगन में फ़ैल चुकी थीं और सामने कुए के पास खड़ा पीपल मस्ती में झूम रहा था।
पिताजी के सामने सबसे बड़ी परेशानी थी, मेरी पढाई। दूसरी कक्षा तक मेरी पढाई दिल्ली के उमराव सिंह प्रामरी स्कूल, जो चाँदनी चौक में जग प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर से सटा हुआ है, हुई थी। और अब मुझे तीसरी कक्षा में दाखिला लेना था।
ये सब हालात और बातें 1947 के जुलाई माह के पहले सप्ताह की हैं। अगस्त की 15 तारीख तय हो चुकी थी, देश की आजादी की। जिस दिन देश के पहले प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू को लालकिले की प्राचीर से झण्डा लहराना था। पिताजी ने तय किया किया कि 15 अगस्त का दिन देश के लिये एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दिन है, सो वे मुझे और माँ को लालकिले पर होने वाला यह जश्न जरूर दिखायेंगे।
आजादी के इस पहले त्यौहार पर मैं पिताजी के साथ दिल्ली में था। और भीड़ चूंकि लाखों में थी, सो 11 साल की उमर के किसी बच्चे के लिये यह सम्भव नहीं था कि भीड़ के बीच खड़ा होकर वह देश के पहले प्रधानमन्त्री को आजादी का झण्डा फहराते हुए स्वयं के बल पर देख सके। पिताजी ने मुझे आजादी का पहला दिन और पहला जश्न अपने कंधे पर बिठा कर दिखाया, जिसकी तस्वीर आज भी जहन में ज्यों की त्यों है।
आजाद देश के जन्म का आनन्द बहुत देर तक नहीं रह सका। पिताजी ने शाम को लौटकर बताया था कि पहचान के काफी लोग गायब थे। जिनमें कुछ हमारे खानदानी भी थे और खान साहब भी। खान साहब अपनी पठानी वेशभूषा में खूब जमते थे और घर-घर जाकर हींग बेचा करते थे। वे सब या तो भाग गये थे, या मारे गये थे। लेकिन खान साहब इस दुनियाँ में अब नहीं थे। यह खबर पक्की थी। क्योंकि जो लोग उनसे जुड़े थे, उन्होंने उनकी लाश धर्मशाला की दीवार के साथ वीराने में पड़ी देखी थी। जब भी किसी जाने पहचाने आदमी की खबर मिलती तो घर में मातम छा जाता। पिताजी भी बहुत भावुक व्यक्ति थे और उनका यह गुण मेरे भीतर पूरी तरह समाहित है। जब एक व्यक्ति की दुनियाँ से विदा होने की खबर मिलती तो उसके साथ-साथ एक बड़ा इतिहास भी दफन हो जाता।
समय जहाँ तेजी से आगे दौड़ता है, वहीं बीते हुए पर धूल की परत और खुले घावों पर मरहम लगाता चलता है।
पिताजी फिर से मुझे और माँ को गाँव में छोड़कर अपनी नौकरी पर लौट गये।
अक्तूबर तक मैं बिल्कुल खाली और आजाद था, जो दूसरी कक्षा की किताबें मेरे पास थीं। अक्सर उन्हीं को यदा-कदा पढ़ता या फिर गाँव में नये-नये बने दोस्तों के साथ गाँव में खेले जाने वाले खेल जैसे गिल्ली-डण्डा, चंगला मार, नौ गोटी, कबड्डी या फिर कोड़ा जमालशाही खेलता।
न जाने पिताजी कितनी रात तक उन्हें विस्तार से सब कुछ बताते रहे, मुझे न जाने कब नींद आ गयी । सुबह जब उठा तो सूरज की पहली किरणें हल्की गुलाबी ठंड में लिपटीं सारे आँगन में फ़ैल चुकी थीं और सामने कुए के पास खड़ा पीपल मस्ती में झूम रहा था।
पिताजी के सामने सबसे बड़ी परेशानी थी, मेरी पढाई। दूसरी कक्षा तक मेरी पढाई दिल्ली के उमराव सिंह प्रामरी स्कूल, जो चाँदनी चौक में जग प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर से सटा हुआ है, हुई थी। और अब मुझे तीसरी कक्षा में दाखिला लेना था।
ये सब हालात और बातें 1947 के जुलाई माह के पहले सप्ताह की हैं। अगस्त की 15 तारीख तय हो चुकी थी, देश की आजादी की। जिस दिन देश के पहले प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू को लालकिले की प्राचीर से झण्डा लहराना था। पिताजी ने तय किया किया कि 15 अगस्त का दिन देश के लिये एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दिन है, सो वे मुझे और माँ को लालकिले पर होने वाला यह जश्न जरूर दिखायेंगे।
आजादी के इस पहले त्यौहार पर मैं पिताजी के साथ दिल्ली में था। और भीड़ चूंकि लाखों में थी, सो 11 साल की उमर के किसी बच्चे के लिये यह सम्भव नहीं था कि भीड़ के बीच खड़ा होकर वह देश के पहले प्रधानमन्त्री को आजादी का झण्डा फहराते हुए स्वयं के बल पर देख सके। पिताजी ने मुझे आजादी का पहला दिन और पहला जश्न अपने कंधे पर बिठा कर दिखाया, जिसकी तस्वीर आज भी जहन में ज्यों की त्यों है।
आजाद देश के जन्म का आनन्द बहुत देर तक नहीं रह सका। पिताजी ने शाम को लौटकर बताया था कि पहचान के काफी लोग गायब थे। जिनमें कुछ हमारे खानदानी भी थे और खान साहब भी। खान साहब अपनी पठानी वेशभूषा में खूब जमते थे और घर-घर जाकर हींग बेचा करते थे। वे सब या तो भाग गये थे, या मारे गये थे। लेकिन खान साहब इस दुनियाँ में अब नहीं थे। यह खबर पक्की थी। क्योंकि जो लोग उनसे जुड़े थे, उन्होंने उनकी लाश धर्मशाला की दीवार के साथ वीराने में पड़ी देखी थी। जब भी किसी जाने पहचाने आदमी की खबर मिलती तो घर में मातम छा जाता। पिताजी भी बहुत भावुक व्यक्ति थे और उनका यह गुण मेरे भीतर पूरी तरह समाहित है। जब एक व्यक्ति की दुनियाँ से विदा होने की खबर मिलती तो उसके साथ-साथ एक बड़ा इतिहास भी दफन हो जाता।
समय जहाँ तेजी से आगे दौड़ता है, वहीं बीते हुए पर धूल की परत और खुले घावों पर मरहम लगाता चलता है।
पिताजी फिर से मुझे और माँ को गाँव में छोड़कर अपनी नौकरी पर लौट गये।
अक्तूबर तक मैं बिल्कुल खाली और आजाद था, जो दूसरी कक्षा की किताबें मेरे पास थीं। अक्सर उन्हीं को यदा-कदा पढ़ता या फिर गाँव में नये-नये बने दोस्तों के साथ गाँव में खेले जाने वाले खेल जैसे गिल्ली-डण्डा, चंगला मार, नौ गोटी, कबड्डी या फिर कोड़ा जमालशाही खेलता।
विवश
विवश
कभी -कभी
सामर्थ्यवान भी
हो जाते हैं विवश
नहीं दिखा पाते अपने रूप
जैसा की अक्सर होता है
सूरज के साथ
कोहरे में फंसकर
किस कदर
हो जाता है हावी
नाचीज कोहरा सूरज पर
नहीं दे पाता वह दर्शन
धरा के वासिओं को
और उसकी नरम धूप
रह जाती है कसमसाकर
ऐसे में आता है वसंत भी
दबे पाँउ
नहीं होते उसके वसन
चटकीले -पीले
न कंचन से
न पीली केसर से
न सरसों के फूले फूलों से
बस करता है रसम अदायगी
जैसे कोई लड़की
लगवाए तन पर मेंहदी
अनचाहे बंधन पर
बी एल गौड़
कभी -कभी
सामर्थ्यवान भी
हो जाते हैं विवश
नहीं दिखा पाते अपने रूप
जैसा की अक्सर होता है
सूरज के साथ
कोहरे में फंसकर
किस कदर
हो जाता है हावी
नाचीज कोहरा सूरज पर
नहीं दे पाता वह दर्शन
धरा के वासिओं को
और उसकी नरम धूप
रह जाती है कसमसाकर
ऐसे में आता है वसंत भी
दबे पाँउ
नहीं होते उसके वसन
चटकीले -पीले
न कंचन से
न पीली केसर से
न सरसों के फूले फूलों से
बस करता है रसम अदायगी
जैसे कोई लड़की
लगवाए तन पर मेंहदी
अनचाहे बंधन पर
बी एल गौड़
संस्मरणों का सच (2)
लगा था की सब कुछ ठीक होता जा रहा है। चाचा की दुकान फिर से खुल गयी थी। लोग बेंच पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ अखबार में छपी ख़बरों पर बहस करते, बगल वाली प्याऊ पर बैठकर ताश खेलते। गुडवालों की धर्मशाला (जहाँ हमारा घर था, यमुना बाजार में भर्ती के दफ्तर के पास है।) में फिर से रोनक लौट आई थी। ताश की चोक्ड़ियाँ मोलश्री के पेड़ के निचे फिर से जमने लगी थीं। तभी एक रात अंगूरी बाग के साथ रेलवे कोलोनी से बचाओ - बचाओ , हर -हर महादेव और या अलाह , अलाह हो अकबर की आवाजों ने आसमान सर पर उठा लिया। पिताजी और हमारे गाँव के अन्य लोग रात भर हमारे घर की छत पर जमा रहे। दूसरे दिन जब काफी धूप चढ़ आई तो पिताजी दो-तीन आदमियों को लेकर रेलवे कोलोनी में गए, क्यूंकि वंहा रहने वाला हजुरा पिताजी के पास ही काम करता था और उसका बेटा रहमतुल्ला मेरा अच्छा दोस्त था। हम अक्सर अपने या उसके मोहल्ले में कंचे खेला करते और कभी किरमिच की गेंद से घंटों खेलते रहते। फिर या तो उसकी माँ या मेरी माँ, डांट कर बुलाती तो खेल बंद हो जाता । हमारे हाँथ - पैर धोए जाते, फिर मुल्तानी मिटटी से पुती तख्ती पर किताब से देखकर लेख लिखे जाते।
लेकिन उस दिन जब पिताजी ने आकर बताया की हजुरा और उसका परिवार का कुछ पता नहीं है और रेलवे का क्वाटर खाली पड़ा है, तब मुझे न जाने क्या हुआ। माँ ने बहुत कहा रोटी खाने के लिए, पर न जाने क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लगा। मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन न तो पिताजी ने खाना खाया और न ही माँ ने। दोनों ही चुपचाप उदास , बेहद दुखी, न जाने किन ख्यालो में दुबे रहे।
दूसरी रात भी इसी प्रकार रही। नावल्टी सिनेमा के पास पीली कोठी धू -धू कर जल उठी और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के यार्ड में लोथियाँ पुल के पास पेट्रोल के टेंकों में किसी ने आग लगा दी। आग इतनी भयंकर थी की बाद में लोगों ने बताया की दस-दस मील तक लोगों को आसमान छूती लपटें और धुआं दिखाई दिया था। दिल्ली की सभी दमकलें कश्मीरी गेट और लोंथियाँ ब्रिज जमुना बाजार की सड़कों पर कड़ी थीं। और फायर ब्रिगेड अपनी अपनी जान की बाजी लगाकर आग बुझाने में लगे हुए थे। किसी तरह दूसरे दिन शाम को आग पर काबू पाया जा सका।
दूसरे दिन पिताजी माँ और मुझे लेकर गाँव के लिए निकल पड़े। रेलवे स्टेशन पर सबकुछ अस्त -व्यस्त था। बुक किये बड़े बड़े सामन जो कहीं जाने थे, आधे-अधूरे जले पड़े हुए थे। मालगाड़ियों में लदे हुए सामानों में से लगातार धूया निकल रहा था।
अलीगड़ जाने वाली पेसेंजर गाडी में मैं और माँ लगातार ४ घंटे तक बैठे रहे। डिब्बा खचाखच भरा हुआ था, लोगो को दर था की शाहदरा से पहले झील खुरंजा पड़ता है। जो सारे का सारा मुसलमान का है ।अगर किसी ने गाड़ी वंहा रोक ली तो कोई भी नहीं बचेगा।
इन्ही चर्चाओं में दोपहर १ बजे के करीब गाड़ी चली। और जैसे-तैसे ६ बजे शाम को हमारे गाँव के स्टेशन सोमना पर पहुंची। जहाँ दादी और दादी जी बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। काफी अँधेरा घिर चूका था, मिटटी के तेल की एक ढिबरी जल रही थी। और मुख्या द्वार पर एक लालटेन ।
लेकिन उस दिन जब पिताजी ने आकर बताया की हजुरा और उसका परिवार का कुछ पता नहीं है और रेलवे का क्वाटर खाली पड़ा है, तब मुझे न जाने क्या हुआ। माँ ने बहुत कहा रोटी खाने के लिए, पर न जाने क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लगा। मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन न तो पिताजी ने खाना खाया और न ही माँ ने। दोनों ही चुपचाप उदास , बेहद दुखी, न जाने किन ख्यालो में दुबे रहे।
दूसरी रात भी इसी प्रकार रही। नावल्टी सिनेमा के पास पीली कोठी धू -धू कर जल उठी और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के यार्ड में लोथियाँ पुल के पास पेट्रोल के टेंकों में किसी ने आग लगा दी। आग इतनी भयंकर थी की बाद में लोगों ने बताया की दस-दस मील तक लोगों को आसमान छूती लपटें और धुआं दिखाई दिया था। दिल्ली की सभी दमकलें कश्मीरी गेट और लोंथियाँ ब्रिज जमुना बाजार की सड़कों पर कड़ी थीं। और फायर ब्रिगेड अपनी अपनी जान की बाजी लगाकर आग बुझाने में लगे हुए थे। किसी तरह दूसरे दिन शाम को आग पर काबू पाया जा सका।
दूसरे दिन पिताजी माँ और मुझे लेकर गाँव के लिए निकल पड़े। रेलवे स्टेशन पर सबकुछ अस्त -व्यस्त था। बुक किये बड़े बड़े सामन जो कहीं जाने थे, आधे-अधूरे जले पड़े हुए थे। मालगाड़ियों में लदे हुए सामानों में से लगातार धूया निकल रहा था।
अलीगड़ जाने वाली पेसेंजर गाडी में मैं और माँ लगातार ४ घंटे तक बैठे रहे। डिब्बा खचाखच भरा हुआ था, लोगो को दर था की शाहदरा से पहले झील खुरंजा पड़ता है। जो सारे का सारा मुसलमान का है ।अगर किसी ने गाड़ी वंहा रोक ली तो कोई भी नहीं बचेगा।
इन्ही चर्चाओं में दोपहर १ बजे के करीब गाड़ी चली। और जैसे-तैसे ६ बजे शाम को हमारे गाँव के स्टेशन सोमना पर पहुंची। जहाँ दादी और दादी जी बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। काफी अँधेरा घिर चूका था, मिटटी के तेल की एक ढिबरी जल रही थी। और मुख्या द्वार पर एक लालटेन ।
अपनापन एक मुक्त छंद
अपनापन
जब भी खोलता हूँ
वातायन के कपाट
पाटा हूँ
दूर तलक फैला घना वन
इसके अतिरिक्त
कोहरा-सन्नाटा
उजाले के साथ मिलकर
साजिश रचता अन्धेरा
वन्य जीवों की बातचीत
पक्षियों के गीत
गीदड़ और भेडियों का
छेड़ा हुआ राग
आरोह-अवरोह
उलझन-ऊहापोह
इससे पहले क़ि यह परिवेश
मेरे भीतर प्रवेश करे
चल पड़ता हूँ
साथ लिए
तन-मन -चेतना -ध्यान , और
अर्जित ज्ञान
किसी पदचाप के पीछे
सोचता हुआ
शायद यहीं कहीं छिपा है
वह परिवेश मनभावन
जब भी खोलता हूँ
वातायन के कपाट
पाटा हूँ
दूर तलक फैला घना वन
इसके अतिरिक्त
कोहरा-सन्नाटा
उजाले के साथ मिलकर
साजिश रचता अन्धेरा
वन्य जीवों की बातचीत
पक्षियों के गीत
गीदड़ और भेडियों का
छेड़ा हुआ राग
आरोह-अवरोह
उलझन-ऊहापोह
इससे पहले क़ि यह परिवेश
मेरे भीतर प्रवेश करे
चल पड़ता हूँ
साथ लिए
तन-मन -चेतना -ध्यान , और
अर्जित ज्ञान
किसी पदचाप के पीछे
सोचता हुआ
शायद यहीं कहीं छिपा है
वह परिवेश मनभावन
संस्मरणों का सच (1)
जीवन के 72वें साल में जब संस्मरणों की बात आई तो मैं शून्य में घंटों तक न जाने कहाँ तक देखता रहा। पहले चीजें कुछ धुंधली सी नजर आईं, फिर धीरे -धीरे धुंध छँटने लगी। जमी धूल हटने लगी और चीजें, घटनाएं बड़ी साफ-साफ दिखने लगीं जैसे किसी ने बड़े करीने से समय के घर में आलों में सजा कर रखी हों। भारत में वर्ष 1947 को एक मील का पत्थर माना जाता है। इस वर्ष में बहुत कुछ घटा था। जहाँ देश ने आजादी का सूरज देखा था, वहीं इसके निवासियों ने आपस में खून की होली भी खेली थी। देश बँटा, लोग बँटे, सभ्यता बँटी और तो और प्यार भी बँटा। बल्कि वह तो इस तरह बँटा कि उसके चीथड़े उड़ गये। पुश्तैनी हवेलियाँ खण्डहरों में तबदील हो गईं और उनके भीतर यादों की किलकारियाँ सदा-सदा के लिए दफन हो गईं। क्या-क्या बताऊँ? मौहल्ले में एक मात्रा चाचा नूरमौहम्मद की दूध्-दही-मिठाई की दुकान लुटी। लोगों ने जी भर कर मिठाइयाँ खाईं। पर चाचा नूरमौहम्मद को मेरे पिता जी ने ऐसी सुरक्षति जगह छुपा दिया था कि लगभग 15 दिन बाद जब वे सबके सामने आये तो नूरमौहम्मद नहीं रामसिंह बन कर आये।उनके दोनों रूप मुझे अच्छी तरह याद हैं, दोनों तस्वीरें मेरे जहन में बड़ी साफ हैं। बड़ी-बड़ी मूँछें, साफ धुला तहमद और कंधें तक की बण्डी जिसमें दो जेबें बाहर और एक बड़ी जेब बाईं तरफ भीतर और पेशावरी काले सैण्डल। ये थे चाचा नूरमौहम्मद और बाद में इकहरी लांग की धेती, आधी बाहों की सफ़ेद कमीज, चोटी-टीका और हाथ में कड़ा ये थे चाचा रामसिंह।
चाचा नूरमौहम्मद का कोई परिवार न पहले था, न बाद में। उनके पास काम करने वाले सब उमर के बच्चे और बड़े ही उनका परिवार था। एक विशेष बात जो मुझे अभी तक याद है, उनका मुझे और पड़ौस के बच्चों को पहले की तरह ही प्यार करना, मेरी दादी और माँ के पैर छूना और पिताजी के पास बैठकर बीड़ी पीना। यह नियम उनके रामसिंह बनने के बाद भी जारी रहा। पिताजी हुक्का पीते रहते और चाचा बीड़ी। 1947 का हादसा जो लगभग अपनी उमर जी चुका था वे शायद चुपचाप उसी के मंजरों में डूबे रहते और उनके ‘चुप’ के संवाद चलते रहते। फिर ‘अच्छा पंडित जी!’ कह कर चाचा अपनी दुकान पर चले जाते और सूरज का रथ तेजी से दौड़ता हुआ पूरब से पश्चिम की ओर चला जाता। पेड़ों के लम्बे साये पुराने अध्जले मकानों पर आकर रूक जाते, रात हो जाती, लालटेनें जल उठतीं, रात होती और हम सब सो जाते। दूसरे दिन फिर सूरज निकलता और दृश्य बदल जाते। पिताजी अपनी सरकारी नौकरी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चले जाते। पिताजी की ड्यूटी एक माह में दो बार बदलती थी। जब कभी मेरी छुट्टी होती तो पिताजी का खाना लेकर मैं खुद स्टेशन पर जाता। पार्सल ऑफिस में पहुँचता तो बड़े बाबू रामरिछपाल जी देखते ही आवाज लगाते ‘ओ-आजा पुत्तर! इत्थे आ-मेरे कोल बैठ!’ और अपनी दराज से चीनी की बनी रंग-बिरंगी दो बड़ी गोलियाँ निकाल कर मेरी हथेली पर रख देते (उन दिनों चोकलेट का चलन नहीं था)। फिर अपने अधीन काम करने वाले किसी आदमी को आवाज लगाते ‘जा वे पंडत को बुला के ला, कहना जल्दी आवे, मुण्डा खाना लेकर आया है।’समय की नदी बड़ी गहरी है और निर्दई भी, न जाने कहाँ गुम हो गया लोगों का वह प्यार जो चीनी से बनी उन गोलियों से भी मीठा था।
चाचा नूरमौहम्मद का कोई परिवार न पहले था, न बाद में। उनके पास काम करने वाले सब उमर के बच्चे और बड़े ही उनका परिवार था। एक विशेष बात जो मुझे अभी तक याद है, उनका मुझे और पड़ौस के बच्चों को पहले की तरह ही प्यार करना, मेरी दादी और माँ के पैर छूना और पिताजी के पास बैठकर बीड़ी पीना। यह नियम उनके रामसिंह बनने के बाद भी जारी रहा। पिताजी हुक्का पीते रहते और चाचा बीड़ी। 1947 का हादसा जो लगभग अपनी उमर जी चुका था वे शायद चुपचाप उसी के मंजरों में डूबे रहते और उनके ‘चुप’ के संवाद चलते रहते। फिर ‘अच्छा पंडित जी!’ कह कर चाचा अपनी दुकान पर चले जाते और सूरज का रथ तेजी से दौड़ता हुआ पूरब से पश्चिम की ओर चला जाता। पेड़ों के लम्बे साये पुराने अध्जले मकानों पर आकर रूक जाते, रात हो जाती, लालटेनें जल उठतीं, रात होती और हम सब सो जाते। दूसरे दिन फिर सूरज निकलता और दृश्य बदल जाते। पिताजी अपनी सरकारी नौकरी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चले जाते। पिताजी की ड्यूटी एक माह में दो बार बदलती थी। जब कभी मेरी छुट्टी होती तो पिताजी का खाना लेकर मैं खुद स्टेशन पर जाता। पार्सल ऑफिस में पहुँचता तो बड़े बाबू रामरिछपाल जी देखते ही आवाज लगाते ‘ओ-आजा पुत्तर! इत्थे आ-मेरे कोल बैठ!’ और अपनी दराज से चीनी की बनी रंग-बिरंगी दो बड़ी गोलियाँ निकाल कर मेरी हथेली पर रख देते (उन दिनों चोकलेट का चलन नहीं था)। फिर अपने अधीन काम करने वाले किसी आदमी को आवाज लगाते ‘जा वे पंडत को बुला के ला, कहना जल्दी आवे, मुण्डा खाना लेकर आया है।’समय की नदी बड़ी गहरी है और निर्दई भी, न जाने कहाँ गुम हो गया लोगों का वह प्यार जो चीनी से बनी उन गोलियों से भी मीठा था।
ताजा ख़बरें पढता हूँ
ताजा ख़बरें पढता हूँ
सुबह सवेरे सबसे पहले
ताजा ख़बरें पढता हूँ
हैं कितनों ने अपराध किए
हैं किसने कैसे पाप किए
अब तक कितने अपहरण हुए
कितनों के चीर हरण हुए
झुग्गियां कितनी जली मिलीं
कितनी लावारिस लाश मिलीं
कुछ मांग न पूरी होने पर
कितनी दुल्हन अधजली मिलीं
ये विचलित करते समाचार
कर जाते मन को तार तार
में आगे पीछे कर चश्मा
इस दिल को थामे पढता हूँ
अनगिन क़त्ल कर चुका कैदी
पुलिश गिरफ्त से भाग गया
गहरी नींद गवा सोया था
सदान सदान को जाग गया
घरवाले उसको समझाते
तू छोड़ गवाही का चक्कर
इस अंधी न्यायव्यवस्था में
तू झेल न पायेगा टक्कर
जा न्यायधीश के सम्मुख तू
क्या सब कुछ सच कह पायेगा ?
मुझको तो ऐसा लगता है
तू जिंदा लौट न पायेगा
ऐसी ख़बरें पेज तीन पर
ले चटकारे पढता
अब सुन कर करना तुम विचार
पहले पन्ने के समाचार
अधिकाँश घोषणाएं झूंटी
कर जातीं मन को तार तार
तुम पाँच बरस हमको देदो
हम दूर गरीबी कर देंगे
नहीं भूख से कोई मरेगा
हम सबको रोटी देंगें
पिछले पाँच दशक से हमने
प्रस्तावों पर गौर किया है
झोपड़पट्टी दूर बसाकर
नगरों का विस्तार किया है
नेता कभी न मरते देखा
ये है लोकतंत्र का लेखा
यदि गीता का कथन सत्य तो
उसको वस्त्र बदलते देखा
दर्शन की ऐसी गूढ़ ख़बर
में प्रष्ट पाँच पर पढता हूँ
सुबह सवेरे सबसे पहले
ताजा ख़बरें पढता हूँ
हैं कितनों ने अपराध किए
हैं किसने कैसे पाप किए
अब तक कितने अपहरण हुए
कितनों के चीर हरण हुए
झुग्गियां कितनी जली मिलीं
कितनी लावारिस लाश मिलीं
कुछ मांग न पूरी होने पर
कितनी दुल्हन अधजली मिलीं
ये विचलित करते समाचार
कर जाते मन को तार तार
में आगे पीछे कर चश्मा
इस दिल को थामे पढता हूँ
अनगिन क़त्ल कर चुका कैदी
पुलिश गिरफ्त से भाग गया
गहरी नींद गवा सोया था
सदान सदान को जाग गया
घरवाले उसको समझाते
तू छोड़ गवाही का चक्कर
इस अंधी न्यायव्यवस्था में
तू झेल न पायेगा टक्कर
जा न्यायधीश के सम्मुख तू
क्या सब कुछ सच कह पायेगा ?
मुझको तो ऐसा लगता है
तू जिंदा लौट न पायेगा
ऐसी ख़बरें पेज तीन पर
ले चटकारे पढता
अब सुन कर करना तुम विचार
पहले पन्ने के समाचार
अधिकाँश घोषणाएं झूंटी
कर जातीं मन को तार तार
तुम पाँच बरस हमको देदो
हम दूर गरीबी कर देंगे
नहीं भूख से कोई मरेगा
हम सबको रोटी देंगें
पिछले पाँच दशक से हमने
प्रस्तावों पर गौर किया है
झोपड़पट्टी दूर बसाकर
नगरों का विस्तार किया है
नेता कभी न मरते देखा
ये है लोकतंत्र का लेखा
यदि गीता का कथन सत्य तो
उसको वस्त्र बदलते देखा
दर्शन की ऐसी गूढ़ ख़बर
में प्रष्ट पाँच पर पढता हूँ
आख़िर कब तक
निरंतर धधकते हुए प्रश्न
द्वार पर देते हैं दस्तक
ये परिस्थितयां - ये मजबूरियां
आख़िर कब तक
यह आंकडें पर दोड़ती प्रगति
आँखों में झोंकी जा रही धूल
उन्नति के साथ अवनति
कहीं सदगति-कहीं दुर्गति
कहीं आवश्यकता से अधिक सतर्कता
निरपेक्षता की आड़ में पेक्षता
कहीं महकते लाल गुलाब
तो कहीं भूख की झाड़ियों पर मुरझाते फूल
ऐसी विसंगतियां
आख़िर कब तक
बादल आये - वर्षा आई
वर्षा आई - बाढ़ लाई
बाढ़ लाई - पानी -पानी
पानी- पानी- त्राहि -त्राहि
व्यवस्था -तार -तार
प्रशासन -शर्मसार
पानी पर बहते सामन
धोती- जनानी - मर्दानी
कमीजें -छोटी -बड़ी -फटी-पुरानी
लोग -जिन्दा - मुर्दा
छप्पर -काठ -कबाड़ -दूकान
बाढ़ की क्रोधित आवाज
और ऊपर उड़ता हवाई जहाज
करता हुआ सर्वेक्षण
कल तक आएगा
टी.वी. पर भाषण
"जो डूबने से बचें हैं
परेशान न हों
कल तक रसद पहुंचेगी
और जो कल तक जीवित बचेंगें
उनमें बराबर बटेगी"
यह आपदा नई नहीं है
और न ही ऐसे दृश्य
यह इतिहास
हर वर्ष दोहराया जाता है
और किसी कदीमी त्यौहार की तरह
हर वर्ष मनाया जाता है
सरकार भी क्या करे
उसकी भी अपनी मजबूरियां
न जाने कब तक ?
ये परिस्थितयां - ये मजबूरियां
आख़िर कब तक
द्वार पर देते हैं दस्तक
ये परिस्थितयां - ये मजबूरियां
आख़िर कब तक
यह आंकडें पर दोड़ती प्रगति
आँखों में झोंकी जा रही धूल
उन्नति के साथ अवनति
कहीं सदगति-कहीं दुर्गति
कहीं आवश्यकता से अधिक सतर्कता
निरपेक्षता की आड़ में पेक्षता
कहीं महकते लाल गुलाब
तो कहीं भूख की झाड़ियों पर मुरझाते फूल
ऐसी विसंगतियां
आख़िर कब तक
बादल आये - वर्षा आई
वर्षा आई - बाढ़ लाई
बाढ़ लाई - पानी -पानी
पानी- पानी- त्राहि -त्राहि
व्यवस्था -तार -तार
प्रशासन -शर्मसार
पानी पर बहते सामन
धोती- जनानी - मर्दानी
कमीजें -छोटी -बड़ी -फटी-पुरानी
लोग -जिन्दा - मुर्दा
छप्पर -काठ -कबाड़ -दूकान
बाढ़ की क्रोधित आवाज
और ऊपर उड़ता हवाई जहाज
करता हुआ सर्वेक्षण
कल तक आएगा
टी.वी. पर भाषण
"जो डूबने से बचें हैं
परेशान न हों
कल तक रसद पहुंचेगी
और जो कल तक जीवित बचेंगें
उनमें बराबर बटेगी"
यह आपदा नई नहीं है
और न ही ऐसे दृश्य
यह इतिहास
हर वर्ष दोहराया जाता है
और किसी कदीमी त्यौहार की तरह
हर वर्ष मनाया जाता है
सरकार भी क्या करे
उसकी भी अपनी मजबूरियां
न जाने कब तक ?
ये परिस्थितयां - ये मजबूरियां
आख़िर कब तक
चुप रहकर
चुप रहकर
बहुत कुछ कह दिया तुमने
चुप रह कर
मैंने भी
सुन लिया बहुत कुछ
वह भी
जो तुमने नहीं कहा
चुप रह कर
वह बरसों की प्रतीक्षा
शांत नहीं थी
बह रही थी
बनकर एक नदी
कहती हुई व्यथा कथा
चुप रह कर
हम स्वयं को
व्यक्त करें भी तो कैसे
व्यक्त कराने का प्रयास करते ही
फूट पड़ती हैं रश्मियों सी
स्मर्तियाँ -विस्मार्तियाँ
लगता है हाथ अन्धेरा
प्रकाश के स्थान पर
प्रशन पर प्रशन
उत्तर नदारद
मानसपटल पर
चलता है अनवरत
एक धारावाहिक
प्रखर संवादों का
"उसने यह कहा
तो मैंने यह कहा
जब नहीं माना उसने
मेरा कहा
तो कर दिया मैंने भी अनसुना
उसका कहा
चुप रहकर
बहुत कुछ कह दिया तुमने
चुप रह कर
मैंने भी
सुन लिया बहुत कुछ
वह भी
जो तुमने नहीं कहा
चुप रह कर
वह बरसों की प्रतीक्षा
शांत नहीं थी
बह रही थी
बनकर एक नदी
कहती हुई व्यथा कथा
चुप रह कर
हम स्वयं को
व्यक्त करें भी तो कैसे
व्यक्त कराने का प्रयास करते ही
फूट पड़ती हैं रश्मियों सी
स्मर्तियाँ -विस्मार्तियाँ
लगता है हाथ अन्धेरा
प्रकाश के स्थान पर
प्रशन पर प्रशन
उत्तर नदारद
मानसपटल पर
चलता है अनवरत
एक धारावाहिक
प्रखर संवादों का
"उसने यह कहा
तो मैंने यह कहा
जब नहीं माना उसने
मेरा कहा
तो कर दिया मैंने भी अनसुना
उसका कहा
चुप रहकर
पाहन बहुत तराशे हैं
पाहन बहुत तराशे हैं
दूर दूर तक सहरा में
हमने ताल तलाशे हैं
इक सूरत अमर बनाने को
पाहन बहुत तराशे हैं l
जब मूरत बन तैयार हुई
तब सोलह सिंगार हुए
काजल बिंदी पाँव महावर
लहंगा चूनर हार हिये
हमको ऐसा लगा की हम तो
कई जनम के प्यासे हैं l
कितनी भी सुघड़ गड़े कोई
पर ,मूरत बोल नहीं पाती
लाख जतन करले कोई
न प्राण प्रतिष्ठा हो पाती
क्यों लगता चोपड के फड पर
हम हुए पराजित पासे हैं l
जन्म जन्म की बात करें तो
पिछले जनम नदारद हैं
कैसे अच्छी ख़बर मिले ,अब
कहाँ सतयुगी नारद हैं
अब कैसे मिले खुशी कोई
हम तो जनम उदासे हैं l
बी एल गौड़
दूर दूर तक सहरा में
हमने ताल तलाशे हैं
इक सूरत अमर बनाने को
पाहन बहुत तराशे हैं l
जब मूरत बन तैयार हुई
तब सोलह सिंगार हुए
काजल बिंदी पाँव महावर
लहंगा चूनर हार हिये
हमको ऐसा लगा की हम तो
कई जनम के प्यासे हैं l
कितनी भी सुघड़ गड़े कोई
पर ,मूरत बोल नहीं पाती
लाख जतन करले कोई
न प्राण प्रतिष्ठा हो पाती
क्यों लगता चोपड के फड पर
हम हुए पराजित पासे हैं l
जन्म जन्म की बात करें तो
पिछले जनम नदारद हैं
कैसे अच्छी ख़बर मिले ,अब
कहाँ सतयुगी नारद हैं
अब कैसे मिले खुशी कोई
हम तो जनम उदासे हैं l
बी एल गौड़
नरम हथेली
नरम हथेली
चलने को तो चला रात भर
चाँद हमारे संग
हुई भोर तो हमने पाया
उड़ा चाँद का रंग
सपनों ने भी खूब निभाई
यारी बहुत पुरानी
कई बार फिर से दोहराई
बीती प्रेम कहानी
लगा स्वपन में धरी किसी ने
माथे नरम हथेली
छूट गई सपनों की दुनिया
नींद हो गई भंग
पूरब का आकाश सज रहा
पश्चिम करे मलाल
जलचर वनचर दरखत पर्वत
सबने माला गुलाल
हर प्राणी उठ खडा हो गया
छोड़ रात के रंग
सूरज सजकर चला काम पर
ले अशवों को संग
भरी दोपहरी हमने काटी
किसी पेड़ की छाँव
रहे देखते हम पगडण्डी
जाती अपने गाँव
ढली दोपहरी कदम बढाए
चले गाँव की और
धूल उडाती गईयाँ लौटीं
चढ़ा सांझ का रंग
धीरे से दिनमान छिप गया
चूमधरा का भाल
हम भी अपने घर जा पहुंचे
आँगन हुआ निहाल
देखे पाँव रचे महावर से
स्वपन हुआ साकार
फिर से चाँद उगा आँगन में
मन में लिए उमंग
चलने को तो चला रात भर
चाँद हमारे संग
हुई भोर तो हमने पाया
उड़ा चाँद का रंग
सपनों ने भी खूब निभाई
यारी बहुत पुरानी
कई बार फिर से दोहराई
बीती प्रेम कहानी
लगा स्वपन में धरी किसी ने
माथे नरम हथेली
छूट गई सपनों की दुनिया
नींद हो गई भंग
पूरब का आकाश सज रहा
पश्चिम करे मलाल
जलचर वनचर दरखत पर्वत
सबने माला गुलाल
हर प्राणी उठ खडा हो गया
छोड़ रात के रंग
सूरज सजकर चला काम पर
ले अशवों को संग
भरी दोपहरी हमने काटी
किसी पेड़ की छाँव
रहे देखते हम पगडण्डी
जाती अपने गाँव
ढली दोपहरी कदम बढाए
चले गाँव की और
धूल उडाती गईयाँ लौटीं
चढ़ा सांझ का रंग
धीरे से दिनमान छिप गया
चूमधरा का भाल
हम भी अपने घर जा पहुंचे
आँगन हुआ निहाल
देखे पाँव रचे महावर से
स्वपन हुआ साकार
फिर से चाँद उगा आँगन में
मन में लिए उमंग
पिताजी का अच्छा काम
पिताजी का अच्छा काम
पिताजी एक अच्छा काम कर गए
क़ि बिना देश का भ्रमण किए ही मर गए
जिस गाँव में पैदा हुए
उसी में जिए
और सारे अच्छे काम
जैसे :
गाँव में एक बड़ी चौपाल
पशुओं के लिए ताल
चामुंडा और पथवारी का thda
पीर का ठान
गाँव के बाहर धर्मशाला
लड़कियों क़ि पाठशाला
इतने सारे काम
बिना चंदे के कर गए
उनकी अमरता के लिए
इतने काम काफ़ी हैं
आज भी गाँव वाले
किसी न किसी रूप में
उनका नाम लेते हैं
जिन्दगी में अच्छा काम
एक ही काफ़ी है
बशर्ते आपने उसे
बिना चंदे के अंजाम दिया हो
और सारा जीवन
बिना चंदे के जिया हो
क्या ऐसा नहीं हो सकता
क़ि हम बिना चंदे के कोई अच्छा काम कर पायें
और बिना किसी चिंता के
चिता पर चढ़ पायें
चंदा मांगना तो बुरा नहीं
बुरा है चंदे से चुंगी काटना
और आंये बांये कर यह बताना
क़ि चन्दा कम पड़ गया
इसी लिए वह काम पिचाद गया
अच्छा हुआ पिताजी
आप समय से मर गए
और बिनना चंदे का दाग लिए
चिता पर चढ़ गए
पिताजी एक ........
पिताजी एक अच्छा काम कर गए
क़ि बिना देश का भ्रमण किए ही मर गए
जिस गाँव में पैदा हुए
उसी में जिए
और सारे अच्छे काम
जैसे :
गाँव में एक बड़ी चौपाल
पशुओं के लिए ताल
चामुंडा और पथवारी का thda
पीर का ठान
गाँव के बाहर धर्मशाला
लड़कियों क़ि पाठशाला
इतने सारे काम
बिना चंदे के कर गए
उनकी अमरता के लिए
इतने काम काफ़ी हैं
आज भी गाँव वाले
किसी न किसी रूप में
उनका नाम लेते हैं
जिन्दगी में अच्छा काम
एक ही काफ़ी है
बशर्ते आपने उसे
बिना चंदे के अंजाम दिया हो
और सारा जीवन
बिना चंदे के जिया हो
क्या ऐसा नहीं हो सकता
क़ि हम बिना चंदे के कोई अच्छा काम कर पायें
और बिना किसी चिंता के
चिता पर चढ़ पायें
चंदा मांगना तो बुरा नहीं
बुरा है चंदे से चुंगी काटना
और आंये बांये कर यह बताना
क़ि चन्दा कम पड़ गया
इसी लिए वह काम पिचाद गया
अच्छा हुआ पिताजी
आप समय से मर गए
और बिनना चंदे का दाग लिए
चिता पर चढ़ गए
पिताजी एक ........
मुझे कुछ कहना है
बार बार कहता हूँ मन के द्वंदों से
पल भर को तो रुको मुझे कुछ कहना है I
मान कहा मन का मैं जीवन भर भटका
समझ नीर कि लहर रेत पर मैं अटका
देख छपे पदचिंह चला पीछे पीछे
लगा चल रहा संग कोई अँखियाँ मीचे
यह मेरी अनुभूति मात्र कल्पना नहीं
थामी जिसने बाहें उसी संग चलना है I
इसने मानी बात न खुद करी मन की
रहा सोचता मैं कब बात करूँ तन की
पलक झपकते ढला सूर्य और शाम हुई
देखें अब यह धुनका कब तक धुनें रुई
अब झीनी सी फटी चदरिया क्या सीना
ओढ़ इसे अब धूप ताप सब सहना है I
तन तो सोया पर मन मीलों मील चला
चखा अमरफल इसने योवन नहीं ढला
अब ऐसे मित्र कहाँ जो देखें बस मन को
है यह जग की रीत सभी देखें तन को
लाख करूँ मैं जतन न छूटे संग इसका
गठबंधन का धर्म इसी संग रहना है I
बी.एल. गौड़
पल भर को तो रुको मुझे कुछ कहना है I
मान कहा मन का मैं जीवन भर भटका
समझ नीर कि लहर रेत पर मैं अटका
देख छपे पदचिंह चला पीछे पीछे
लगा चल रहा संग कोई अँखियाँ मीचे
यह मेरी अनुभूति मात्र कल्पना नहीं
थामी जिसने बाहें उसी संग चलना है I
इसने मानी बात न खुद करी मन की
रहा सोचता मैं कब बात करूँ तन की
पलक झपकते ढला सूर्य और शाम हुई
देखें अब यह धुनका कब तक धुनें रुई
अब झीनी सी फटी चदरिया क्या सीना
ओढ़ इसे अब धूप ताप सब सहना है I
तन तो सोया पर मन मीलों मील चला
चखा अमरफल इसने योवन नहीं ढला
अब ऐसे मित्र कहाँ जो देखें बस मन को
है यह जग की रीत सभी देखें तन को
लाख करूँ मैं जतन न छूटे संग इसका
गठबंधन का धर्म इसी संग रहना है I
बी.एल. गौड़
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