पनपती तानाशाही

जब १९७४ में रेल हड़ताल हुई तो मैं रेलवे मैन्स यूनियन गाजियाबाद ब्रांच का पदाधिकारी था। रेलवे कर्मचारियों की इस यूनियन की बागडोर फैडरेशन लेबल पर श्री जार्ज फर्नांडीज के हांथों में थी। गाजियाबाद ही नहीं सारे भारत में यंहा तक की मुंबई में भी जहा कभी भी इससे पहले की हडतालों में रेल बंद हुईं हैं, वंहा के प्लेटफार्म पर भी सूनापन पसरा था। गाड़ियाँ जंहा की तंहा खड़ी थीं।


देश में कोंग्रेस का राज था। हर जगह नारे लग रहे थे- "तानाशाही नहीं चलेगी, गुंडागर्दी नहीं चलेगी, हमारी मांगें पूरी करो" आदि-आदि। रेलवे की यह हड़ताल पूरी तरह सफल रही, सिवाय इसके की कुछ स्थानों पर सिर-फिरे पुलिस कर्मियों की ज्यादती रही। हर जिले की जेलें हडताली कर्मचारियों से पात दी गयीं, लेकिन यह सुनने को नहीं मिला कि किसी कर्मचारी का सिर पुलिस की लाठी से फूट गया या कर्मचारियों को दोड़ा-दोड़ा कर पिता गया। मैं चूँकि स्वयं भुक्तयोगी रहा हूँ, इसलिए इसका साक्षी भी हूँ। जेल में जेल अधिकारीयों का व्यवहार अच्छा और सोहार्दपूर्ण था।

लेकिन आज का नजारा दूसरा है, ३६ साल में देश ने बहुत तरक्की की है। पुलिस और नेताओं के दिमाग विकसित हुए हैं, उनकी सोच बदली है। अब वे हडताली कर्मचारियों को आदमियों के झुण्ड में न देख कर पशुओं के झुण्ड में देखते है उन्हें लगता है की साड़ी भेड़ें एक हो गयी हैं और ये बिना लाठी के काबू में नहीं आयेंगी। साथ ही लाठी चलाने वाले और चलवाने वाले अफसर राज्य -सर्कार में अपने नंबर बदवाना चाहतें हैं। अब नंबर तो इसी तरह से बढेंगे न कि वे सरकार कि मर्जी के मुताबिक़ कार्य करें। अपना विवेक और अपनी मानवता घर के भीतर खूंटी पर टांग कर कार्य करें।

दिनांक २२/१/२०१० को आप लगभग सभी चैनेलों पर देख रहे होंगें कि किस प्रकार उत्तर प्रदेश कि राजधानी लखनऊ का डी.एम. एक कर्मचारी को चांटा मार रहा है। और चांटे से पहले चेतावनी देना भी नहीं भूलता कि उसे गुस्सा न दिलाया जाय। अब डी.एम. के एक चांटे ने उस कर्मचारी की सामाजिक इज्जत और उसके स्वाभिमान पर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया। यदि डी.एम.के स्थान पर कोई उसका हमजोली होता तो उसका भी हाथ उठ सकता था, लेकिन यंहा उस कर्मचारी का विवेक काम कर रहा था की प्रत्युतर का परिदाम होगा शरीर की एक भी हड्डी का साबुत न बचना।



प्रश्न चांटे या लाठी चार्ज पर ही समाप्त नहीं होता। यदि सरकार तंत्र ने येनकेन-प्रकारेण इस स्थानीय साधारण से विद्रोह को कुचल भी दिया और विजय प्राप्त कर ली तो क्या समस्या का हल हो गया? मैं समझता हूँ इससे कर्मचारियों के मन में जो विद्रोह का विस्फोट होगा वह लाठी और चांटे से अधिक भयंकर होगा। साधारण स्थिति में भी जंहा दफ्तर का बड़ा बाबु अपनी सीट पर अपना चश्मा रख कर गायब हो जाता है, और लोग इन्तजार में ऐसे बैठे रहते है, जैसे वे किसी चिता के पास बैठकर कपाल खोपड़ी की क्रिया पूर्ण होने का इन्तजार कर रहे हों. चुपचाप बिलकुल शांत लोहे या फट्टे की बेंच पर रह -रहकर पास बदलते हुए । तो इस लाठी -चांटे का बदला कर्मचारी अपनी अनुपस्थिति का समय बढाकर, सही को सही कहने की अपनी सुविधा शुल्क बढाकर सरकार से बदला लेने की कोशिश करेगा। और इसके बाद कर्मचारी किसी भी हड़ताल या विद्रोह जताने से पहले दस बार सोचेंगे। शायद धीरे-धीरे वे किसी भी प्रकार के विदोढ़ से ही विमुख हो जायें। और महसूस करने लगे कि प्रजातंत्र और लोकतंत्र केवल दिखावा है। जंहा व्यक्ति अपना विरोध प्रकट नहीं कर सकता वंहा कैसा लोकतंत्र।

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