संस्मरणों का सच (2)

लगा था की सब कुछ ठीक होता जा रहा है। चाचा की दुकान फिर से खुल गयी थी। लोग बेंच पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ अखबार में छपी ख़बरों पर बहस करते, बगल वाली प्याऊ पर बैठकर ताश खेलते। गुडवालों की धर्मशाला (जहाँ हमारा घर था, यमुना बाजार में भर्ती के दफ्तर के पास है।) में फिर से रोनक लौट आई थी। ताश की चोक्ड़ियाँ मोलश्री के पेड़ के निचे फिर से जमने लगी थीं। तभी एक रात अंगूरी बाग के साथ रेलवे कोलोनी से बचाओ - बचाओ , हर -हर महादेव और या अलाह , अलाह हो अकबर की आवाजों ने आसमान सर पर उठा लिया। पिताजी और हमारे गाँव के अन्य लोग रात भर हमारे घर की छत पर जमा रहे। दूसरे दिन जब काफी धूप चढ़ आई तो पिताजी दो-तीन आदमियों को लेकर रेलवे कोलोनी में गए, क्यूंकि वंहा रहने वाला हजुरा पिताजी के पास ही काम करता था और उसका बेटा रहमतुल्ला मेरा अच्छा दोस्त था। हम अक्सर अपने या उसके मोहल्ले में कंचे खेला करते और कभी किरमिच की गेंद से घंटों खेलते रहते। फिर या तो उसकी माँ या मेरी माँ, डांट कर बुलाती तो खेल बंद हो जाता । हमारे हाँथ - पैर धोए जाते, फिर मुल्तानी मिटटी से पुती तख्ती पर किताब से देखकर लेख लिखे जाते।

लेकिन उस दिन जब पिताजी ने आकर बताया की हजुरा और उसका परिवार का कुछ पता नहीं है और रेलवे का क्वाटर खाली पड़ा है, तब मुझे न जाने क्या हुआ। माँ ने बहुत कहा रोटी खाने के लिए, पर न जाने क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लगा। मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन न तो पिताजी ने खाना खाया और न ही माँ ने। दोनों ही चुपचाप उदास , बेहद दुखी, न जाने किन ख्यालो में दुबे रहे।
दूसरी रात भी इसी प्रकार रही। नावल्टी सिनेमा के पास पीली कोठी धू -धू कर जल उठी और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के यार्ड में लोथियाँ पुल के पास पेट्रोल के टेंकों में किसी ने आग लगा दी। आग इतनी भयंकर थी की बाद में लोगों ने बताया की दस-दस मील तक लोगों को आसमान छूती लपटें और धुआं दिखाई दिया था। दिल्ली की सभी दमकलें कश्मीरी गेट और लोंथियाँ ब्रिज जमुना बाजार की सड़कों पर कड़ी थीं। और फायर ब्रिगेड अपनी अपनी जान की बाजी लगाकर आग बुझाने में लगे हुए थे। किसी तरह दूसरे दिन शाम को आग पर काबू पाया जा सका।
दूसरे दिन पिताजी माँ और मुझे लेकर गाँव के लिए निकल पड़े। रेलवे स्टेशन पर सबकुछ अस्त -व्यस्त था। बुक किये बड़े बड़े सामन जो कहीं जाने थे, आधे-अधूरे जले पड़े हुए थे। मालगाड़ियों में लदे हुए सामानों में से लगातार धूया निकल रहा था।
अलीगड़ जाने वाली पेसेंजर गाडी में मैं और माँ लगातार ४ घंटे तक बैठे रहे। डिब्बा खचाखच भरा हुआ था, लोगो को  दर था की शाहदरा से पहले झील खुरंजा पड़ता है। जो सारे का सारा मुसलमान का  है  ।अगर किसी ने  गाड़ी  वंहा रोक ली तो कोई भी नहीं बचेगा।
इन्ही चर्चाओं में दोपहर १ बजे के करीब गाड़ी चली। और जैसे-तैसे ६ बजे शाम को हमारे गाँव के स्टेशन सोमना पर पहुंची। जहाँ दादी और दादी जी बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। काफी अँधेरा घिर चूका था, मिटटी के तेल की एक ढिबरी  जल  रही  थी। और  मुख्या  द्वार  पर  एक  लालटेन ।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

समर्थक