मत पूछो प्रशन कोई हमसे

मत पूछो प्रशन कोई हमसे


उत्तर से और जनम लेंगे

अंतस में जो बचे शेष वे

आंसू बनकर छलकेंगे


जाने कितनी मन्नत मानीं

दर कितनों पर कर जोर झुके

गर मिला कहीं भी देवस्थल

तो पाँव वहाँ पर स्वयं रुके

तब किसी पुजारी ने आकर

इक बात कही यों समझाकर

करम लिखे जो मांथे पर वे

नहीं तिलक से बदलेंगे


हम रहे खोजते प्रेम डगर

ना जाने कहाँ विलीन हुई

घर भीतर खोया अपनापन

मानवता बन कर उड़ी रुई

बढ़ती हुई भीड़ में शायद

खोया कहीं आदमीपन

कितनी भी कसो मुट्ठ्याँ तुम

रजकण बाहर ही निकलेंगे


बी एल गौड़

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