ek kavitaa "jagat sattyam"

जगत सत्त्यम

ब्रह्मं से जन्मा जगत
यदि है नहीं सत्त्यम
तो ब्रह्मं भी सत्त्यम नहीं
यूं ही किसी ने कह दिया होगा
"जगत मित्थ्या ब्रह्मं सत्त्यम "

ब्रह्मं क्या है ?
तेरी मेरी और उसकी
कल्पना का एक सपना
मान लेना सत्य उसको
जो अभी तक है अजाना
और आदमी को यह बताना
की तू यहाँ पर
प्रेम के मत बीज बो
न पनपेगा यहाँ पर
बिरवा नेह का
उसे तू कल्पना में कैद कर
या बना गहना
स्वयं के गेह का
भौतिक जगत तो
नष्ट होने के लिए है
यहाँ पर कुछ नहीं अपना
यहाँ पर कुछ नहीं सत्त्यम   |

धारकर भी ज्ञान इतना
लौट आता फिर
उसी नश्वर जगत में
प्यास से व्याकुल हिरन सा मन
और आकर फुसफुसाता
"मैं न मानूं ब्रह्मं सत्त्यम "
जगत सत्त्यम -जगत सत्त्यम |

बी एल गौड़  

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