ek kavitaa "jagat sattyam"

जगत सत्त्यम

ब्रह्मं से जन्मा जगत
यदि है नहीं सत्त्यम
तो ब्रह्मं भी सत्त्यम नहीं
यूं ही किसी ने कह दिया होगा
"जगत मित्थ्या ब्रह्मं सत्त्यम "

ब्रह्मं क्या है ?
तेरी मेरी और उसकी
कल्पना का एक सपना
मान लेना सत्य उसको
जो अभी तक है अजाना
और आदमी को यह बताना
की तू यहाँ पर
प्रेम के मत बीज बो
न पनपेगा यहाँ पर
बिरवा नेह का
उसे तू कल्पना में कैद कर
या बना गहना
स्वयं के गेह का
भौतिक जगत तो
नष्ट होने के लिए है
यहाँ पर कुछ नहीं अपना
यहाँ पर कुछ नहीं सत्त्यम   |

धारकर भी ज्ञान इतना
लौट आता फिर
उसी नश्वर जगत में
प्यास से व्याकुल हिरन सा मन
और आकर फुसफुसाता
"मैं न मानूं ब्रह्मं सत्त्यम "
जगत सत्त्यम -जगत सत्त्यम |

बी एल गौड़  

nai rachna

ओस के कण

पांखुरी कि देह पर
ओस के कण देखकर
एक पल को यों लगा
ज्यों किसी ने बीनकर आंसू किसी के
ला बिखेरे फूल पर |

कुछ देर में आकर यहाँ
दिनमान छू लेगा इनेहं
ये भाप बन उड़ जायेंगे
रूप धरकर बादलों का
फिर गगन में छाएंगे
आ झुकेंगे ये धरा के भाल पर
या सिमिटकर सात रंग में
जा तानेंगे पाहनों के ढाल पर
या बनेंगे बूँद फिर से
जा गिरेंगे फूल पर या शूल पर |

मुझ से कहा था फूल ने
तू ध्यान दे इस बात पर
जब जिंदगी है चार दिन
तो रात कि मत बात कर
तू झूमकर इसको बिता
तू जिंदगी के गीत गा
तू सो बरस के साधनों की
भूलकर मत भूल कर
जब कदाचिन माँ फलेषु
कर्म का औचित्त्य क्या
इस पार तो सब सत्य है
उस पार का अस्तित्त्व क्या ?
तू चोट कर भरपूर ऐसी
रूड़ियों के मूल पर |

veno

veno

ek nai kavita " dahez "

दहेज़

जिंदगी के साथ - साथ मुझे
कुछ दर्द भी
दहेज़ में मिले |

दाता की उदारता पर
न कोई प्रश्न्चिनंह न गिला
क्यों कि यह सिलसिला
सदिओं से चला आ रहा है
और दर्द कि नदी में आज तक
कोई भी
अपनी मर्जी से नहीं बहा है
साथ ही एक बात और
कि कुछ दोस्त भी यहाँ
अज़ब गज़ब मिले |

बातें
चाहे विगत की हों
वर्तमान अथवा भविष्य  की
छोड़ जातीं हैं निशाँ
मानस पटल पर
अब क्या करे यह मन
डूबा रहे आकंठ
सोच की नदी में
या किसी जीवित नदी के साथ
सागर की ओर चले
जहां नदी को मिले समुद्र
और इसे
तीर पर बैठा इसका मीत मिले |

तरक्की, एक मुक्तछंद कविता

तरक्की,
आदमी बहुत तरक्की कर गया है
संवेदनहीनता की
सारी हदें पार कर गया है

अब
आदमी का मरना ,या
सरेआम मार दिया जाना
महज एक सनसनीखेज़ ख़बर के अलावा
और कुछ नहीं होता
और इस ख़बर की उमर भी
बुलबुले की उमर के बराबर होती है

वास्तविकता तो ये है
की अब
आदमी दो भागों में विभक्त हो गया है
बाहर से पहले जैसा ज़िंदा
लेकिन
भीतर से मर गया है

आदमी को इंसान बनाने के लिए
जरूरी है एक आसव
जिसे तैआर करने के लिए
जरूरी हैं कुछ जड़ी बूटियाँ
जैसे
गीत ,कविता ,कहानी
दोहा,मुक्तक और ग़ज़ल
सबको बराबर मात्रा में लेकर
मिलाकर उतना ही  दर्देजल
घूँट -घूँट कर पीना होगा
तभी बच पायेगा
आदमी का आदमीपन
और इसके लगातार सेवन से
आप देखेंगे
क़ि बदल गया है आदमी
और वह अब
आदमी से इंसान बन गया है

मत पूछो प्रशन कोई हमसे

मत पूछो प्रशन कोई हमसे


उत्तर से और जनम लेंगे

अंतस में जो बचे शेष वे

आंसू बनकर छलकेंगे


जाने कितनी मन्नत मानीं

दर कितनों पर कर जोर झुके

गर मिला कहीं भी देवस्थल

तो पाँव वहाँ पर स्वयं रुके

तब किसी पुजारी ने आकर

इक बात कही यों समझाकर

करम लिखे जो मांथे पर वे

नहीं तिलक से बदलेंगे


हम रहे खोजते प्रेम डगर

ना जाने कहाँ विलीन हुई

घर भीतर खोया अपनापन

मानवता बन कर उड़ी रुई

बढ़ती हुई भीड़ में शायद

खोया कहीं आदमीपन

कितनी भी कसो मुट्ठ्याँ तुम

रजकण बाहर ही निकलेंगे


बी एल गौड़

तू मुझे भी साथ ले चल

तू मुझे भी साथ ले चल



तू मुझे भी साथ ले चल

झूमकर बहते पवन

है मुझे चूना उसे जो

जा बसा नीले गगन


देकर दिलाशा वह गया

मैं लौटकर फिर आऊँगा

ताप हर लेगा तुम्हरा

पुष्प जो मैं लाऊँगा

टाक नित सूनी डगर को

थक चुके हैं अब नयन


गर न पाया वह गगन तो

पार सागर के चलेंगे

तीव्र गति का यान लेकर

पार हर दूरी करेंगे

वह कहीं भी तो मिलेगा

घाट-घाटी या घने वन

ये न जाने कौन मन की

प्यास को देता बढ़ावा

और इस ढलती उमर में

फूटता सुधिओं लावा

कौन कब आया कहाँ पर

पहन कर पीले वसन


पा न पाये हम उसे तो

खा रहे गंगा कसम

मान कर यह झूंठ था सब

तोड़ लेंगे हम भरम

सोच कर मित्थ्या जगत ये

हम करेंगे वन गमन

बी एल गौड़

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